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बाङ्गला के अमर कथाशिल्पी विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय की कहानियों का बाङ्गला से हिन्दी अनुवाद...
Kishor KaHANIYAN
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बाङ्गला के अमर कथाशिल्पी विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय (1894-1950) का नाम भारतीय कथा-साहित्य में एक उज्जवल नक्षत्र की तरह है। उनका जन्म मुरारिपुर (बंगाल) में एक गरीब परिवार में हुआ था। उन्होंने आरंभिक पढ़ाई अपने गाँव और फिर वनग्राम नामक कस्बे में पायी। इसके बाद की स्कूली और कॉलेज की पढ़ाई कलकत्ता में पूरी की तथा बी.ए. उपाधि प्राप्त कर, जंगीपाड़ा हुगली में स्कूल शिक्षक बने। कुछेक वर्षों तक सरकारी महकमों में भी नौकरी की । वे फिर शिक्षा जगत में लौट आये और आजीवन लेखन-कार्य से जुड़े रहे।
प्रस्तुत संकलन की सभी कहानियों में सामान्य लोगों और सहज ग्राम-जीवन की असाधारण झाँकियाँ और मार्मिक ध्वनियाँ हैं। बंगाल की मनोरम प्रकृति, वहाँ का आत्मीय परिवेश और इसके साथ ही गाँवो में रहनेवालों की नियति से जुड़ी ये कहानियाँ पाठकों को झकझोर कर रख देंगी।
इन कहानियों का बाङ्गला से हिन्दी अनुवाद श्री अमर गोस्वामी ने किया है। श्री गोस्वामी हिन्दी के सुपरिचित कथाकार, पत्रकार तथा अनुवादक हैं। आपकी कई कथा कृतियाँ प्रकाशित और चर्चित हैं।
प्रस्तुत संकलन की सभी कहानियों में सामान्य लोगों और सहज ग्राम-जीवन की असाधारण झाँकियाँ और मार्मिक ध्वनियाँ हैं। बंगाल की मनोरम प्रकृति, वहाँ का आत्मीय परिवेश और इसके साथ ही गाँवो में रहनेवालों की नियति से जुड़ी ये कहानियाँ पाठकों को झकझोर कर रख देंगी।
इन कहानियों का बाङ्गला से हिन्दी अनुवाद श्री अमर गोस्वामी ने किया है। श्री गोस्वामी हिन्दी के सुपरिचित कथाकार, पत्रकार तथा अनुवादक हैं। आपकी कई कथा कृतियाँ प्रकाशित और चर्चित हैं।
तालनवमी
मूसलाधार बारिश हो रही थी।
भादो का महान था। पिछले पन्द्रह दिनों से लगातार पानी बरश रहा था, जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। गाँव के खुदीराम भट्टाचार्य के यहाँ दो दिनों से चूल्हा नहीं जला था।
खुदीराम मामूली आयवाला गृहस्थ था। खेतों में होने वाली थोड़ी-सी आय और दो-चार यजमानों तथा शिष्यों के यहाँ से दो-कुछ दान-दक्षिणा मिल जाती थी उससे उसकी गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह खिंच जाती। इस भयानक बारिश में गाँव के कितने ही घरों में बच्चों के मुँह में अन्न का दाना तक नहीं गया था, खुदीराम तो एक मामूली गृहस्थ था। यजमानों के यहाँ से जो थोड़ा-बहुत धान उसे मिला था, वहृ खत्म चुका था। भादों के अंत में जब किसानों के घऱ में नया धान आयेगा तब उसे भी कुछ मिलेगा। तभी उसके बच्चों पेट भर खना नसीब होगा।
खुदीराम के दो बच्चे थे—नेपाल और गोपाल। नेपाल की उम्र बारह साल की थी और गोपाल दस का था। कुछ दिनों से पेट भर खाना न मिलने के कारण दोनों भाई चिड़चिड़े हो गये थे।
नेपाल ने पूछा, ‘‘गोपाल, तुझे भूख लगी होगी होगी न ?’’
गोपाल मछली पकड़ने की बंसी छीलते हुए बोला, ‘‘हाँ भैया !’’
‘‘माँ से माँगता क्यों नहीं ? मेरे पेट में भी चूहे कूद रहे हैं।’’
‘‘माँ बिगड़ती ह। तुम्ही चले जाओ भैया।’’
‘‘बिगड़ने दे ! मेरा नाम लेकर माँ से कह नहीं सकता ?’’
तभी मुहल्ले के शीबू बनर्जी के लड़के चुनी को आते देखकर नेपाल ने उसे पुकारा, ‘‘अरे ओ चुनी, ज़रा इधर आ।’’
चूनी उम्र में नेपाल से बड़ा था। खाते-पीते घर का लड़का था। वह देखने-सुनने में भी बुरा नहीं था। नेपाल की बात सुनकर वह उसके आँगन के बाड़े के अन्दर आकर बोला, ‘‘क्या बात है ?’’
‘‘अन्दर आ जा।’’
‘‘नहीं, अंदर नहीं आऊंगा। दिन ढल रहा है। मैं जटी बुआ के यहाँ जा रहा हूँ। माँ वहीं पर है। उसे बुलाने जा रहा हूँ।’’
‘‘इस घड़ी तेरी माँ वहाँ क्या कर रही है ?’’
‘‘उनके यहाँ दाल दलने गयी हैं। मंगलवार को ताल (ताड़0 नवमी का व्रत है। उसके घर में दावत होगी।’’
‘‘सचमुच ?’’
‘‘तुझे पता नहीं ? हमारे घर के सभी लोगों को न्योता दिया गया है। गाँव के और भी लोगों को बुलाएँगे।’’
‘‘हमें भी बुलाएँगे ?’’
‘‘जब सभी को न्योता दे रहे हैं तो तुम्हीं को क्यों छोड़ देंगे ?’’
चुनी के चले जाने के बाद नेपाल ने अपने छोटे भाई से कहा, ‘‘आज कौन-सा दिन है, तुझे पता है ? शायद शुक्रवार है। मंगलवार को दावत है।’’
गोपाल ने कहा, ‘‘कितना मज़ा आयेगा ! है न भैया !’’
‘‘तू चुप रह, तुझे अक्ल-वक्ल नहीं है। तालनवमी के व्रत के दिन ताल के बड़े बनते हैं। तुझे पता है ?’’
गोपाल को यह पता नहीं था। लेकिन बड़े भाई से यह जानकारी पाकर वह खुश हो गया। अगर यह सच है तब जल्दी ही बढिया पकवान खाने को मिलेंगे, इसमें देर नहीं थी। उसे यह पता नहीं था कि आज कौन-सा दिन है, मगर इतना जानता था कि दावत मंगलवार को ही है, जो अब दूर नहीं था।
जटी बुआ का घर पास में ही पड़ता था। नेपाल ने कहा, ‘‘तू यहाँ ठहर, मैं ज़रा अंदर जाकर पता कर आऊँ। उनके यहाँ ताड़ की ज़रूरत तो होगी ही, शायद वे लोग तदाड़ खरीद लें।’’
उस गाँव में ताड़ के पेड़ नहीं थे। आगे मैदान में एक बहुत बड़ी ताड़दीघी थी। नेपाल वहाँ से ज़मीन पर गिरे ताड़ बटोरकर गाँव में लाकर बेचता था।
जटी बुआ सामने ही खड़ी थीं। वे उसी गाँव के नटवर मुखर्जी की पत्नी थीं। उनका असली नाम हरिमति था। गाँव के बच्चे उन्हें जटी बुआ कहकर बुलाते थे।
बुआ ने पूछा, ‘‘क्या है रे ?’’
‘‘तुम्हें ताड़ की ज़रूरत है बुआ ?’’
‘‘हैँ है तो ! इसी मंगलवार को ज़रूरत पड़ेगी।’’
तभी गोपाल भी अपने भाई के पीचे आकर खड़ा हो गया। जटी बुआ ने पूछा, ‘‘पीछे कौन खड़ा है रे ? गोपाल ! शाम के वक्त तुम दोनों भाई कहाँ गये थे ?’’
गोपाल ने लजाते हुए कहा, ‘‘मछली पकड़ने।’’
‘‘मिली ?’’
‘‘दो पूँटी मछलियाँ और एक छोटी बेले मछली।..तो अब जाऊँ बुआ ?’’
‘‘हाँ, अब जाओ बेटा, साँझ हो गयी है। बरसात के मौसम में अंधेरे में घूमना-फिरना ठीक नहीं।’’
जटी बुआ ने ताड़ लेने के बारे में खास आग्रह नहीं दिखाया और न तालनवमी के व्रत के सिलसिले में उन्हें न्योता की बात ही कही। हालाँकि दोनों ने सोचा यहा था कि उन्हें देखते ही जटी बुआ उन्हें न्योता पर बुला लेंगी। बाहर निकलते-निकलते नेपाल ने एक बार फिर पीछे मुड़कर पूछा, ‘‘तो आप ताड़ लेगीं न ?’’
‘‘ताड़ ? हाँ ठीक है, दे जाना। मगर पैसे के कितने ताड़ दोगे ?’’
‘‘पैसे के दो देता हूँ। जब आप ले रही हैं तो पैसे के तीन ले लीजिएगा।’’
‘‘बढ़िया काले पके ताड़ होंगे न ? तालनवमी के दिन हमारे यहाँ ताड़ के पीठे बनेंगे। मुझे खूब बढ़िया ताड़ चाहिए।’’
‘‘बिलकुल पके ताड़ लाऊँगा। आप निश्चिंत रहें।’’
गोपाल ने घर से निकलते ही अपने भाई से पूछा, ‘‘भैया, इनके यहाँ ताड़ कब दोगे ?’’
‘‘कल।’’
‘‘भैया, तुम उनसे पैसे मत लेना।’’
नेपाल ने चौंकते हुए पूछा, ‘क्यों ?’’
‘‘जब ऐसा करोगे तभी तो वे हमें न्योता देंगी, देख लेना।’’
‘‘धत् ! मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं इतनी तकलीफ़ करके ताड़ लाऊँ और बिना पैसे लिये दे दूँ ?’’
रात में पानी बरसने लगा। साथ में तेज़ बरसाती हवा भी बहने लगी। पूरब की ओर खिड़की के पल्ले सुतली से बँधे हुए थे। हवा के धक्के से सुतली टूट जाने से रात-भर इस आँधी-पानी मं वे पल्ले खट-खट की आवाज़ करते रहे। गोपाल को नींद नहीं आयी। उसे डर लग रहा था। वह लेटा-लेटा सोच रहा था, अगर भैया उनके ताड़ के पैसे ले लेगा तो शायद वे लोग उन्हें दावत पर न बुलाएँ। फिर क्यों बुलायेंगे ?
खूब तड़के उठकर गोपाल ने देखा, घर के सभी लोग सो रहे थे। अभी तक कोई जगा नहीं था। रात भर होनेवाली बारिश थम चुकी थी, बस बूँदा-बाँदी हो रही थी। गोपाल दौड़ता हुआ गाँव के बाहर की तालदीघी के पास चला गया। वहाँ चारों तरफ़ घुटनों भर पानी और किचड़ भरा था। गाँव के उत्तरी पाड़ा का गणेश कौरा कंधे पर हल उठाये इतनी सुबह अपने खेत में जा रहा था। उसने पूछा, ‘‘अरे खोका ठाकुर, इतने भोर में कहाँ चल दिये ?’’
‘‘तालाब के किनारे ताड़ बटोरने जा रहा हूँ।’’
‘‘वहाँ साँप बहुत हैं मुन्ना ! बरसात में अकेले उस तरफ़ मत जाना।’’
गोपाल डरते-डरते दीघी के ताड़ पोखर के ताड़बन में घुसकर ताड़ ढूँढ़ने लगा। एक बड़ा और खूब काला ताड़ उसे पानी के करीब पड़ा नजऱ आया। उसे उठाकर वापस लौटते वक़्त और भी तीन छोटे-छोटे ताड़ उसे पड़े हुए नज़र आये। छोटा होने के कारण इतने सारे ताड़ एक साथ उठाकर लाना उसके वश में नहीं था, इसलिए सिर्फ़ दो ही ताड़ लेकर वह भागा-भागा जटी बुआ के यहाँ पहुँच गया।
जटी बुआ ठीक उसी समय घर के सामनेवाला धरवाज़ा खोलकर पानी छिड़क रही थीं। उसे सुबह-सुबह वहाँ देखकर वे आश्चर्य से बोलीं, ‘‘क्या बात है मुन्ना ?’’
गोपाल ने भरपूर मुस्कान के साथ कहा, ‘‘बुआ, मैं तुम्हारे लिए ताड़ ले आया हूँय़’’
जटी बुआ ने उससे वे दोनो ताड़ ले लिए और बिना कुछ कहे अंदर चली गयीं।
गोपाल ने सोचा एक बार पूछ ले कि तालनवमी कब है ? मगर उसकी हिम्मत नहीं पड़ी।
दिन भर गोपाल का यह हाल रहा कि खेलते-खेलते भी उसका मन कहीं और चला जाता था। मूसलाधार बरसात की दोपहर में उसने सिर उठाकर देखा नारियल के पेड़ की फुनगी से पत्तों पर टपकती हुई पानी की बूँदें नीचे झड़ रही हैं। बाँस के पेड़ बरसाती हवा के झोंके से दोहरे हुए जा रहे थे। बकुलतला के पोखर में मेंढकों का झुंड रह-रहकर टर्रा रहा था।
गोपाल ने पूछा, ‘‘माँ, आजकल मेंढक पहले-जैसा क्यों नहीं टर्राते ?’’
माँ बोली, ‘‘वे ताज़ा पानी में खुश होकर टर्राते हैं। बासी पानी में उन्हें मज़ा नहीं आता।’’
‘‘आज कौन-सा दिन है माँ ?’’
‘सोमवार ! मगर तुझे क्या ? इसे जानने की तुझे क्या जरूरत आ पड़ी ?’’
‘‘मंगलवार को तालनवमी है न माँ ?’’
‘‘शायद ! ठीक बता नहीं सकती। ख़ुद के हाँड़ी में भात नहीं जुटता, तालनवमी के बारे में जानकर मैं क्या करूँगी ?’’
पूरा दि बीत गया। नेपाल ने शाम के वक़्त उससे पूछा, ‘‘तू आज जटी बुआ के घर में ताड़ देने गया था ? तुझे ताड़ कहाँ से मिले ? मैं ताड़ लेकर पहुँचा तो जटी बुआ बोलीं, ‘‘गोपाल आकर ताड़ दे गया है। पैसे भी नहीं लिये।’’ तुझे मुफ़्त में ताड़ देने की क्या ज़रूरत थी ? अगर हमें एक पैसा मिल जाता तो उससे हम दोनों भाई लाई खरीदकर खा सकते थे।’’
‘‘देखना भैया, हमें भी न्योता मिलेगा। कल तालनवमी है।’’
‘‘वह तो ऐसे भी मिलेगा, पैसा लेने पर भी न्योता मिलता है। तू बिलकुल बुद्धू है।’’
‘‘अच्छा भैया, कल ही मंगलवार है न ?’’
रात में उत्तेजना के मारे गोपाल को नींद नहीं आयी। उसके मकान की बगल में बड़े बकुल के पेड़ पर जुगनुओं का झुंड़ जगमगा रहा था। खिड़की से बाहर देखते हुए वह एक ही बात सोच रहा था कि कब सुबह होगी, कितनी देर बाद यह रात खत्म होगी।
जटी बुआ ने उसे खिलाते वक़्त प्यार से पूछा, ‘‘मुन्ना, लौकी की सब्जी लेगा ? थोड़ी-सी मूँग की दाल और लेकर अच्छी तरह भात सान ले।’’
जटी बुआ की बड़ी बेटी लावण्य दी एक बड़ी थाली में गरमा गरम तले हबुए तिलवड़े, पीठे लाकर उसके सामने हँसते हुए बोलीं, ‘‘मुन्ना, तू कितने तिल पीटे खायेगा ?’’ यह कहते हुए लवण्या दी ने पूरा थाल ही उसके पत्तल पर उड़ेल दिया। इसके बाद जटी बुआ खीर और ताड़ के बड़े लेकर आयीं। वे हँसते हुए बोलीं, ‘‘मुन्ना, तूने हमें जो ताड़ लाकर दिए थे, उसी से यह खीर बनी है। खा ले, खूब जी भर कर खा ले। आज तालनवमी है न !’’
उस वक़्त पूरे वातावरण में तरह-तरह की स्वादिष्ट सब्ज़ियों की खुशबू समायी हुई थी। हवा में ख़जूर, गुड़ की खीर की सुगंध बसी हुई थी। गोपाल का मन खुशी और आनंद से नाच उठा। वह बैठा-बैठा बस खाये ही जा रहा था, उठने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसके साथ खाना खानेवाले अपना खाना ख़त्म कर चुके थे, मगर वह अभी तक खाता ही जा रहा था। लावण्य दी उससे हँसते हुए पूछ रही थीं, ‘‘तुझे थोड़े-से तिल पीठे और दूँ ?’’
‘‘अरे ओ गोपाल !’’
अचानक गोपाल ने आँखें खोलकर देखा, खिड़की के पास बरसात में भीगे हुए पेड़-झाड़ नज़र आ रहे थे। अपना जाना-पहचाना शरीफ़े का पेड़ भी था। वह अपने कमरे में लेटा हुआ था। माँ के जगाने पर उसकी नींद टूटी थी। माँ उसके पास खड़ी हुई कह रही थी, ‘‘अब उठ, काफ़ी दिन चढ़ आया है। बादलों के कारण पता नहीं चल रहा है।’’
वह बेवकूफ़ों की तरह आँखें फाड़कर अपनी माँ की ओर देखने लगा।
‘‘माँ, आज कौन-सा दिन है ?’’
‘‘मंगलवार।’’
‘‘हाँ, आज ही तो तालनवमी है। नींद में वह न जाने कैसे ऊलजलूल सपने देख रहा था।
दिन और भी चढ़ गया था। हालाँकि बदली-बारिश का दिन होने से वक़्त का ठीक से पता नहीं चल रहा था। गोपाल अपने मकान के दरवाजे के बाहर लकड़ी के एक कुंदे पर आसन जमाकर बैठ गया। पानी बरसना बंद हो चुका था, मगर आसमान में घने बादल छाये हुए थे। बरसाती हवा के कारण शरीर में हल्की कँपकँपी भी हो रही थी। गोपाल आस लगाये बैठा रहा। सोच रहा था जटी बुआ के घर से कोई न्योता देने क्यों नहीं आया ?
दिन काफी चढ़ जाने के बाद उसके मुहल्ले के जगबन्धु चक्रवर्ती अपने बाल-बच्चों को लेकर सामने की सड़क से गुजरते हुए नज़र आये। उनके पीछे राखाल राय औऱ उनका बेटा सोनू था। उसके पीछे कालीवर बनर्जी का बड़ा बेटा पाँचू और दूसरे मुहल्ले का हरेन...
गोपाल ने सोचा, ‘‘ये लोग कहाँ जा रहे हैं ?’’
उनके चले जाने के थोड़ी देर बाद बूढ़ी नवीन भट्टाचार्य और उनका छोटा भाई दीनू अपने साथ बाल-बच्चों को लेकर जाते हुए नज़र आये।
दीनू भट्टाचार्य का बेटा कूड़ोराम उसे देखकर बोला, ‘‘तू यहाँ चुपचाप बैठा क्यों है रे, नहीं जायेगा ?’’
‘‘तुम लोग कहाँ जा रहे हो ?’’
‘‘जटी बुआ के घर तालनवमी के न्योते पर। तुम लोगों को न्योता नहीं मिला ? वैसे भी उन्होंने कुछ गिने-चुने लोगों को ही बुलाया है, सभी को न्योता नहीं दिया है।’’
गोपाल अचानक गुस्से और स्वाभिमान से बौखला गया। वह गुस्से में उठकर खड़ा हो गया। बोला, ‘‘वे हमें न्योता क्यों नहीं देंगे ? सिर्फ तुम्हीं को देंगे ? हमें भी ज़रूर बुलायेंगे। हम थोड़ी देर बाद जायेंगे।’’
उसे खिझानेवाली कौन-सी बात उसने कह दी थी, इसे न समझ पाकर कूड़ोराम ने हैरानी से कहा, ‘‘अरे वाह, तू इतना भड़क क्यों गया, बात क्या है ?’’
उसके जाने के बाद गोपाल की आँखें भर आयीं। शायद इस दुनिया का अन्याय देखकर। वह कई दिनों से इंतज़ार में बैठा था। लेकिन वह बस इंतज़ार ही करता रह गया। आँसुओं से धुँधली हुई उसकी नज़र के सामने उसी के मुहल्ले के हारू, हितेन, देवेन, गुटके अपने-अपने पिता और चाचा के साथ एक-एक करके उसके घर के सामने से होते हुए जटी बुआ के घर की ओर चले गये...।
भादो का महान था। पिछले पन्द्रह दिनों से लगातार पानी बरश रहा था, जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। गाँव के खुदीराम भट्टाचार्य के यहाँ दो दिनों से चूल्हा नहीं जला था।
खुदीराम मामूली आयवाला गृहस्थ था। खेतों में होने वाली थोड़ी-सी आय और दो-चार यजमानों तथा शिष्यों के यहाँ से दो-कुछ दान-दक्षिणा मिल जाती थी उससे उसकी गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह खिंच जाती। इस भयानक बारिश में गाँव के कितने ही घरों में बच्चों के मुँह में अन्न का दाना तक नहीं गया था, खुदीराम तो एक मामूली गृहस्थ था। यजमानों के यहाँ से जो थोड़ा-बहुत धान उसे मिला था, वहृ खत्म चुका था। भादों के अंत में जब किसानों के घऱ में नया धान आयेगा तब उसे भी कुछ मिलेगा। तभी उसके बच्चों पेट भर खना नसीब होगा।
खुदीराम के दो बच्चे थे—नेपाल और गोपाल। नेपाल की उम्र बारह साल की थी और गोपाल दस का था। कुछ दिनों से पेट भर खाना न मिलने के कारण दोनों भाई चिड़चिड़े हो गये थे।
नेपाल ने पूछा, ‘‘गोपाल, तुझे भूख लगी होगी होगी न ?’’
गोपाल मछली पकड़ने की बंसी छीलते हुए बोला, ‘‘हाँ भैया !’’
‘‘माँ से माँगता क्यों नहीं ? मेरे पेट में भी चूहे कूद रहे हैं।’’
‘‘माँ बिगड़ती ह। तुम्ही चले जाओ भैया।’’
‘‘बिगड़ने दे ! मेरा नाम लेकर माँ से कह नहीं सकता ?’’
तभी मुहल्ले के शीबू बनर्जी के लड़के चुनी को आते देखकर नेपाल ने उसे पुकारा, ‘‘अरे ओ चुनी, ज़रा इधर आ।’’
चूनी उम्र में नेपाल से बड़ा था। खाते-पीते घर का लड़का था। वह देखने-सुनने में भी बुरा नहीं था। नेपाल की बात सुनकर वह उसके आँगन के बाड़े के अन्दर आकर बोला, ‘‘क्या बात है ?’’
‘‘अन्दर आ जा।’’
‘‘नहीं, अंदर नहीं आऊंगा। दिन ढल रहा है। मैं जटी बुआ के यहाँ जा रहा हूँ। माँ वहीं पर है। उसे बुलाने जा रहा हूँ।’’
‘‘इस घड़ी तेरी माँ वहाँ क्या कर रही है ?’’
‘‘उनके यहाँ दाल दलने गयी हैं। मंगलवार को ताल (ताड़0 नवमी का व्रत है। उसके घर में दावत होगी।’’
‘‘सचमुच ?’’
‘‘तुझे पता नहीं ? हमारे घर के सभी लोगों को न्योता दिया गया है। गाँव के और भी लोगों को बुलाएँगे।’’
‘‘हमें भी बुलाएँगे ?’’
‘‘जब सभी को न्योता दे रहे हैं तो तुम्हीं को क्यों छोड़ देंगे ?’’
चुनी के चले जाने के बाद नेपाल ने अपने छोटे भाई से कहा, ‘‘आज कौन-सा दिन है, तुझे पता है ? शायद शुक्रवार है। मंगलवार को दावत है।’’
गोपाल ने कहा, ‘‘कितना मज़ा आयेगा ! है न भैया !’’
‘‘तू चुप रह, तुझे अक्ल-वक्ल नहीं है। तालनवमी के व्रत के दिन ताल के बड़े बनते हैं। तुझे पता है ?’’
गोपाल को यह पता नहीं था। लेकिन बड़े भाई से यह जानकारी पाकर वह खुश हो गया। अगर यह सच है तब जल्दी ही बढिया पकवान खाने को मिलेंगे, इसमें देर नहीं थी। उसे यह पता नहीं था कि आज कौन-सा दिन है, मगर इतना जानता था कि दावत मंगलवार को ही है, जो अब दूर नहीं था।
जटी बुआ का घर पास में ही पड़ता था। नेपाल ने कहा, ‘‘तू यहाँ ठहर, मैं ज़रा अंदर जाकर पता कर आऊँ। उनके यहाँ ताड़ की ज़रूरत तो होगी ही, शायद वे लोग तदाड़ खरीद लें।’’
उस गाँव में ताड़ के पेड़ नहीं थे। आगे मैदान में एक बहुत बड़ी ताड़दीघी थी। नेपाल वहाँ से ज़मीन पर गिरे ताड़ बटोरकर गाँव में लाकर बेचता था।
जटी बुआ सामने ही खड़ी थीं। वे उसी गाँव के नटवर मुखर्जी की पत्नी थीं। उनका असली नाम हरिमति था। गाँव के बच्चे उन्हें जटी बुआ कहकर बुलाते थे।
बुआ ने पूछा, ‘‘क्या है रे ?’’
‘‘तुम्हें ताड़ की ज़रूरत है बुआ ?’’
‘‘हैँ है तो ! इसी मंगलवार को ज़रूरत पड़ेगी।’’
तभी गोपाल भी अपने भाई के पीचे आकर खड़ा हो गया। जटी बुआ ने पूछा, ‘‘पीछे कौन खड़ा है रे ? गोपाल ! शाम के वक्त तुम दोनों भाई कहाँ गये थे ?’’
गोपाल ने लजाते हुए कहा, ‘‘मछली पकड़ने।’’
‘‘मिली ?’’
‘‘दो पूँटी मछलियाँ और एक छोटी बेले मछली।..तो अब जाऊँ बुआ ?’’
‘‘हाँ, अब जाओ बेटा, साँझ हो गयी है। बरसात के मौसम में अंधेरे में घूमना-फिरना ठीक नहीं।’’
जटी बुआ ने ताड़ लेने के बारे में खास आग्रह नहीं दिखाया और न तालनवमी के व्रत के सिलसिले में उन्हें न्योता की बात ही कही। हालाँकि दोनों ने सोचा यहा था कि उन्हें देखते ही जटी बुआ उन्हें न्योता पर बुला लेंगी। बाहर निकलते-निकलते नेपाल ने एक बार फिर पीछे मुड़कर पूछा, ‘‘तो आप ताड़ लेगीं न ?’’
‘‘ताड़ ? हाँ ठीक है, दे जाना। मगर पैसे के कितने ताड़ दोगे ?’’
‘‘पैसे के दो देता हूँ। जब आप ले रही हैं तो पैसे के तीन ले लीजिएगा।’’
‘‘बढ़िया काले पके ताड़ होंगे न ? तालनवमी के दिन हमारे यहाँ ताड़ के पीठे बनेंगे। मुझे खूब बढ़िया ताड़ चाहिए।’’
‘‘बिलकुल पके ताड़ लाऊँगा। आप निश्चिंत रहें।’’
गोपाल ने घर से निकलते ही अपने भाई से पूछा, ‘‘भैया, इनके यहाँ ताड़ कब दोगे ?’’
‘‘कल।’’
‘‘भैया, तुम उनसे पैसे मत लेना।’’
नेपाल ने चौंकते हुए पूछा, ‘क्यों ?’’
‘‘जब ऐसा करोगे तभी तो वे हमें न्योता देंगी, देख लेना।’’
‘‘धत् ! मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं इतनी तकलीफ़ करके ताड़ लाऊँ और बिना पैसे लिये दे दूँ ?’’
रात में पानी बरसने लगा। साथ में तेज़ बरसाती हवा भी बहने लगी। पूरब की ओर खिड़की के पल्ले सुतली से बँधे हुए थे। हवा के धक्के से सुतली टूट जाने से रात-भर इस आँधी-पानी मं वे पल्ले खट-खट की आवाज़ करते रहे। गोपाल को नींद नहीं आयी। उसे डर लग रहा था। वह लेटा-लेटा सोच रहा था, अगर भैया उनके ताड़ के पैसे ले लेगा तो शायद वे लोग उन्हें दावत पर न बुलाएँ। फिर क्यों बुलायेंगे ?
खूब तड़के उठकर गोपाल ने देखा, घर के सभी लोग सो रहे थे। अभी तक कोई जगा नहीं था। रात भर होनेवाली बारिश थम चुकी थी, बस बूँदा-बाँदी हो रही थी। गोपाल दौड़ता हुआ गाँव के बाहर की तालदीघी के पास चला गया। वहाँ चारों तरफ़ घुटनों भर पानी और किचड़ भरा था। गाँव के उत्तरी पाड़ा का गणेश कौरा कंधे पर हल उठाये इतनी सुबह अपने खेत में जा रहा था। उसने पूछा, ‘‘अरे खोका ठाकुर, इतने भोर में कहाँ चल दिये ?’’
‘‘तालाब के किनारे ताड़ बटोरने जा रहा हूँ।’’
‘‘वहाँ साँप बहुत हैं मुन्ना ! बरसात में अकेले उस तरफ़ मत जाना।’’
गोपाल डरते-डरते दीघी के ताड़ पोखर के ताड़बन में घुसकर ताड़ ढूँढ़ने लगा। एक बड़ा और खूब काला ताड़ उसे पानी के करीब पड़ा नजऱ आया। उसे उठाकर वापस लौटते वक़्त और भी तीन छोटे-छोटे ताड़ उसे पड़े हुए नज़र आये। छोटा होने के कारण इतने सारे ताड़ एक साथ उठाकर लाना उसके वश में नहीं था, इसलिए सिर्फ़ दो ही ताड़ लेकर वह भागा-भागा जटी बुआ के यहाँ पहुँच गया।
जटी बुआ ठीक उसी समय घर के सामनेवाला धरवाज़ा खोलकर पानी छिड़क रही थीं। उसे सुबह-सुबह वहाँ देखकर वे आश्चर्य से बोलीं, ‘‘क्या बात है मुन्ना ?’’
गोपाल ने भरपूर मुस्कान के साथ कहा, ‘‘बुआ, मैं तुम्हारे लिए ताड़ ले आया हूँय़’’
जटी बुआ ने उससे वे दोनो ताड़ ले लिए और बिना कुछ कहे अंदर चली गयीं।
गोपाल ने सोचा एक बार पूछ ले कि तालनवमी कब है ? मगर उसकी हिम्मत नहीं पड़ी।
दिन भर गोपाल का यह हाल रहा कि खेलते-खेलते भी उसका मन कहीं और चला जाता था। मूसलाधार बरसात की दोपहर में उसने सिर उठाकर देखा नारियल के पेड़ की फुनगी से पत्तों पर टपकती हुई पानी की बूँदें नीचे झड़ रही हैं। बाँस के पेड़ बरसाती हवा के झोंके से दोहरे हुए जा रहे थे। बकुलतला के पोखर में मेंढकों का झुंड रह-रहकर टर्रा रहा था।
गोपाल ने पूछा, ‘‘माँ, आजकल मेंढक पहले-जैसा क्यों नहीं टर्राते ?’’
माँ बोली, ‘‘वे ताज़ा पानी में खुश होकर टर्राते हैं। बासी पानी में उन्हें मज़ा नहीं आता।’’
‘‘आज कौन-सा दिन है माँ ?’’
‘सोमवार ! मगर तुझे क्या ? इसे जानने की तुझे क्या जरूरत आ पड़ी ?’’
‘‘मंगलवार को तालनवमी है न माँ ?’’
‘‘शायद ! ठीक बता नहीं सकती। ख़ुद के हाँड़ी में भात नहीं जुटता, तालनवमी के बारे में जानकर मैं क्या करूँगी ?’’
पूरा दि बीत गया। नेपाल ने शाम के वक़्त उससे पूछा, ‘‘तू आज जटी बुआ के घर में ताड़ देने गया था ? तुझे ताड़ कहाँ से मिले ? मैं ताड़ लेकर पहुँचा तो जटी बुआ बोलीं, ‘‘गोपाल आकर ताड़ दे गया है। पैसे भी नहीं लिये।’’ तुझे मुफ़्त में ताड़ देने की क्या ज़रूरत थी ? अगर हमें एक पैसा मिल जाता तो उससे हम दोनों भाई लाई खरीदकर खा सकते थे।’’
‘‘देखना भैया, हमें भी न्योता मिलेगा। कल तालनवमी है।’’
‘‘वह तो ऐसे भी मिलेगा, पैसा लेने पर भी न्योता मिलता है। तू बिलकुल बुद्धू है।’’
‘‘अच्छा भैया, कल ही मंगलवार है न ?’’
रात में उत्तेजना के मारे गोपाल को नींद नहीं आयी। उसके मकान की बगल में बड़े बकुल के पेड़ पर जुगनुओं का झुंड़ जगमगा रहा था। खिड़की से बाहर देखते हुए वह एक ही बात सोच रहा था कि कब सुबह होगी, कितनी देर बाद यह रात खत्म होगी।
जटी बुआ ने उसे खिलाते वक़्त प्यार से पूछा, ‘‘मुन्ना, लौकी की सब्जी लेगा ? थोड़ी-सी मूँग की दाल और लेकर अच्छी तरह भात सान ले।’’
जटी बुआ की बड़ी बेटी लावण्य दी एक बड़ी थाली में गरमा गरम तले हबुए तिलवड़े, पीठे लाकर उसके सामने हँसते हुए बोलीं, ‘‘मुन्ना, तू कितने तिल पीटे खायेगा ?’’ यह कहते हुए लवण्या दी ने पूरा थाल ही उसके पत्तल पर उड़ेल दिया। इसके बाद जटी बुआ खीर और ताड़ के बड़े लेकर आयीं। वे हँसते हुए बोलीं, ‘‘मुन्ना, तूने हमें जो ताड़ लाकर दिए थे, उसी से यह खीर बनी है। खा ले, खूब जी भर कर खा ले। आज तालनवमी है न !’’
उस वक़्त पूरे वातावरण में तरह-तरह की स्वादिष्ट सब्ज़ियों की खुशबू समायी हुई थी। हवा में ख़जूर, गुड़ की खीर की सुगंध बसी हुई थी। गोपाल का मन खुशी और आनंद से नाच उठा। वह बैठा-बैठा बस खाये ही जा रहा था, उठने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसके साथ खाना खानेवाले अपना खाना ख़त्म कर चुके थे, मगर वह अभी तक खाता ही जा रहा था। लावण्य दी उससे हँसते हुए पूछ रही थीं, ‘‘तुझे थोड़े-से तिल पीठे और दूँ ?’’
‘‘अरे ओ गोपाल !’’
अचानक गोपाल ने आँखें खोलकर देखा, खिड़की के पास बरसात में भीगे हुए पेड़-झाड़ नज़र आ रहे थे। अपना जाना-पहचाना शरीफ़े का पेड़ भी था। वह अपने कमरे में लेटा हुआ था। माँ के जगाने पर उसकी नींद टूटी थी। माँ उसके पास खड़ी हुई कह रही थी, ‘‘अब उठ, काफ़ी दिन चढ़ आया है। बादलों के कारण पता नहीं चल रहा है।’’
वह बेवकूफ़ों की तरह आँखें फाड़कर अपनी माँ की ओर देखने लगा।
‘‘माँ, आज कौन-सा दिन है ?’’
‘‘मंगलवार।’’
‘‘हाँ, आज ही तो तालनवमी है। नींद में वह न जाने कैसे ऊलजलूल सपने देख रहा था।
दिन और भी चढ़ गया था। हालाँकि बदली-बारिश का दिन होने से वक़्त का ठीक से पता नहीं चल रहा था। गोपाल अपने मकान के दरवाजे के बाहर लकड़ी के एक कुंदे पर आसन जमाकर बैठ गया। पानी बरसना बंद हो चुका था, मगर आसमान में घने बादल छाये हुए थे। बरसाती हवा के कारण शरीर में हल्की कँपकँपी भी हो रही थी। गोपाल आस लगाये बैठा रहा। सोच रहा था जटी बुआ के घर से कोई न्योता देने क्यों नहीं आया ?
दिन काफी चढ़ जाने के बाद उसके मुहल्ले के जगबन्धु चक्रवर्ती अपने बाल-बच्चों को लेकर सामने की सड़क से गुजरते हुए नज़र आये। उनके पीछे राखाल राय औऱ उनका बेटा सोनू था। उसके पीछे कालीवर बनर्जी का बड़ा बेटा पाँचू और दूसरे मुहल्ले का हरेन...
गोपाल ने सोचा, ‘‘ये लोग कहाँ जा रहे हैं ?’’
उनके चले जाने के थोड़ी देर बाद बूढ़ी नवीन भट्टाचार्य और उनका छोटा भाई दीनू अपने साथ बाल-बच्चों को लेकर जाते हुए नज़र आये।
दीनू भट्टाचार्य का बेटा कूड़ोराम उसे देखकर बोला, ‘‘तू यहाँ चुपचाप बैठा क्यों है रे, नहीं जायेगा ?’’
‘‘तुम लोग कहाँ जा रहे हो ?’’
‘‘जटी बुआ के घर तालनवमी के न्योते पर। तुम लोगों को न्योता नहीं मिला ? वैसे भी उन्होंने कुछ गिने-चुने लोगों को ही बुलाया है, सभी को न्योता नहीं दिया है।’’
गोपाल अचानक गुस्से और स्वाभिमान से बौखला गया। वह गुस्से में उठकर खड़ा हो गया। बोला, ‘‘वे हमें न्योता क्यों नहीं देंगे ? सिर्फ तुम्हीं को देंगे ? हमें भी ज़रूर बुलायेंगे। हम थोड़ी देर बाद जायेंगे।’’
उसे खिझानेवाली कौन-सी बात उसने कह दी थी, इसे न समझ पाकर कूड़ोराम ने हैरानी से कहा, ‘‘अरे वाह, तू इतना भड़क क्यों गया, बात क्या है ?’’
उसके जाने के बाद गोपाल की आँखें भर आयीं। शायद इस दुनिया का अन्याय देखकर। वह कई दिनों से इंतज़ार में बैठा था। लेकिन वह बस इंतज़ार ही करता रह गया। आँसुओं से धुँधली हुई उसकी नज़र के सामने उसी के मुहल्ले के हारू, हितेन, देवेन, गुटके अपने-अपने पिता और चाचा के साथ एक-एक करके उसके घर के सामने से होते हुए जटी बुआ के घर की ओर चले गये...।
2
चावल
यह मानभूमि के ढूहोंवाली जंगली जगह थी। थोड़ी दूर पर एक विराट पर्वतश्रेणी जाने कहाँ तक चली गयी थी ? बसंत के आख़िरी दिन थे। पलाश फूलों से सारा जंगल खिल उठा था। नाकटिटाँड़ के एक ऊँचे टीले से मैं जितनी दूर देख पाता था सिर्फ लाल पलाश के जंगल ही नज़र आते थे, जो नीली पर्वतश्रेणी की गोद में चले गये थे।
यहाँ मैं एक काम से जंगल देखने आया था। यहाँ से नज़दीक ही सड़क के किनारे पलाशवन के आख़िरी छोर के डाक बँगले में मैं ठहरा था। जंगल की लकड़ियों से होने वाली आय का अनुमान लगाने के लिए मैं घूमता रहता था। एक दिन शाम ढलने से पहले मैं नाकटिटाँड़ के जंगल से लौट रहा था। मैंने देखा कि रास्ते के किनारे एक हर्र के पेड़ के नीचे बैठकर एक आदमी और एक छोटी बच्ची अपनी पोटली खोलकर कुछ खा रहे थे। इस निर्जन जगह, जहाँ चारों तरफ कोई न था, शाम ढलने ही वाली थी और सामने बाघमुत्ती का जंगली रास्ता था, ऐसे वक़्त उस आदमी को देखकर मुझे उसके बारे में जानने का कौतूहल हुआ। इसलिए मैं उधर ही चला गया।
उस आदमी का चेहरा देखकर उसकी उम्र के बारे में अनुमान लगाना मुश्किल था। उसके सिर के बाल अधपके थे। उसकी पोटली में दो फटे कपड़े, एक कथरी और लगभग दो सेर मक्का तथा एक ख़ाली चाय या बिस्कुट का टिन था। शायद वही हर तरह के बर्तनों का अभाव पूरा कर रहा था। वह बच्ची चार या पाँच साल की रही होगी। वह एक गंदा फटा कपड़ा पहने थी। उसकी कमर में एक काला डोरा बंधा था।
मैंने पूछा, ‘‘तुम लोग कहाँ जाओगे, तुम्हारा घर कहाँ है ?’’
उस आदमी ने मानभूमि वाली भाषा में कहा, ‘‘तोड़ागं में बाबू...! थोड़ी आग होगी ?’’
‘‘दियासलाई ? रुको देता हूँ।...तोड़ांग यहाँ से कितनी दूर है ?’’
‘‘यहाँ से थोड़ी दूर है। पाँच कोस होगा।’’
‘‘इस वक़्त शाम को कहाँ से आ रहे हो ?’’
‘‘यहीं...पुरुलिया से।...ज़रा आग दो बाबू। देह बेहद टूट रही है। यह लड़की जब दो माह की थी इसकी माँ मर गयी थी। इस लड़की को अकेला छोड़कर जंगल में लकड़ी काटने नहीं जा सकता था, इसलिए पुरुलिया चला गया था। दो साल वहाँ भीख माँगते हुए बीते।’’
उस आदमी के कहने के लहज़े ने मुझे उसकी तरफ़ आकृष्ट किया। डाक बँगले में इस वक़्त लौटकर करना भी क्या था ! वहाँ भी कोई संगी-साथी नहीं था। इससे तो बेहतर था कि इससे ही थोड़ी देर बात करता। नज़दीक ही एक बड़ा पत्थर था। उस पर बैठकर मैंने एक बीड़ी दी। एक बीड़ी खुद भी सुलगायी। उस आदमी का घर यहाँ से शायद पाँच-छह कोस दूर एक छोटे-से जंगली गाँव में था, जो बाघमुत्ती और झालदा पर्वतश्रेणी और जंगल के बीच किसी एकांत छायागहन तराई में पलाश, महुआ, बरगद वग़ैरह पेड़ों के नीचे बसा होगा। उस आदमी के दो बच्चे पैदा होकर मर जाने के बाद यह लड़की हुई थी। जब वह दो माह की थी तब उसकी माँ भी मर गयी। वह आदमी जंगल की लकड़ियाँ काटकर गाँव की दूसरे लोगों की तरह चंदनकियारी के हाट में बेचता था। लेकिन अब उसके पीछे घर में उस दो माह की लड़की को कौन देखता ? उसे साथ लेकर ऊँचे पहाड़ पर धूप और वर्षा में वह किस तरह लकड़ियाँ काटता ? इसलिए घर में ताला लगाकर वह रोज़गार की तलाश में पुरुलिया शहर चला गया था।
मैंने पूछा, ‘‘लकड़ियाँ बेचकर कितने पैसे मिल जाते होंगे ?’’
उसने बीड़ी का कश लेकर कहा, ‘‘एक गट्ठर के तीन-चार आने मिलते थे। जंगल का टैक्स दो पैसे लगता था। चावल सस्ता था। दो लोगों का पेट किसी तरह भर जाता था। फिर यह लड़की पैदा हुई। इसके पैदा होने के बाद इसकी माँ मर गयी। उस वक़्त इस नन्हीं-सी जान को छोड़कर जंगल में जाने का मन नहीं हुआ। सोचा-पुरुलिया चला जाऊँ। बड़ा शहर है। दो लोगों के खाने भर का इंतज़ाम को हो ही जायेगा।’’
‘‘क्या पुरुलिया बड़ा शहर है ?’’
यहाँ मैं एक काम से जंगल देखने आया था। यहाँ से नज़दीक ही सड़क के किनारे पलाशवन के आख़िरी छोर के डाक बँगले में मैं ठहरा था। जंगल की लकड़ियों से होने वाली आय का अनुमान लगाने के लिए मैं घूमता रहता था। एक दिन शाम ढलने से पहले मैं नाकटिटाँड़ के जंगल से लौट रहा था। मैंने देखा कि रास्ते के किनारे एक हर्र के पेड़ के नीचे बैठकर एक आदमी और एक छोटी बच्ची अपनी पोटली खोलकर कुछ खा रहे थे। इस निर्जन जगह, जहाँ चारों तरफ कोई न था, शाम ढलने ही वाली थी और सामने बाघमुत्ती का जंगली रास्ता था, ऐसे वक़्त उस आदमी को देखकर मुझे उसके बारे में जानने का कौतूहल हुआ। इसलिए मैं उधर ही चला गया।
उस आदमी का चेहरा देखकर उसकी उम्र के बारे में अनुमान लगाना मुश्किल था। उसके सिर के बाल अधपके थे। उसकी पोटली में दो फटे कपड़े, एक कथरी और लगभग दो सेर मक्का तथा एक ख़ाली चाय या बिस्कुट का टिन था। शायद वही हर तरह के बर्तनों का अभाव पूरा कर रहा था। वह बच्ची चार या पाँच साल की रही होगी। वह एक गंदा फटा कपड़ा पहने थी। उसकी कमर में एक काला डोरा बंधा था।
मैंने पूछा, ‘‘तुम लोग कहाँ जाओगे, तुम्हारा घर कहाँ है ?’’
उस आदमी ने मानभूमि वाली भाषा में कहा, ‘‘तोड़ागं में बाबू...! थोड़ी आग होगी ?’’
‘‘दियासलाई ? रुको देता हूँ।...तोड़ांग यहाँ से कितनी दूर है ?’’
‘‘यहाँ से थोड़ी दूर है। पाँच कोस होगा।’’
‘‘इस वक़्त शाम को कहाँ से आ रहे हो ?’’
‘‘यहीं...पुरुलिया से।...ज़रा आग दो बाबू। देह बेहद टूट रही है। यह लड़की जब दो माह की थी इसकी माँ मर गयी थी। इस लड़की को अकेला छोड़कर जंगल में लकड़ी काटने नहीं जा सकता था, इसलिए पुरुलिया चला गया था। दो साल वहाँ भीख माँगते हुए बीते।’’
उस आदमी के कहने के लहज़े ने मुझे उसकी तरफ़ आकृष्ट किया। डाक बँगले में इस वक़्त लौटकर करना भी क्या था ! वहाँ भी कोई संगी-साथी नहीं था। इससे तो बेहतर था कि इससे ही थोड़ी देर बात करता। नज़दीक ही एक बड़ा पत्थर था। उस पर बैठकर मैंने एक बीड़ी दी। एक बीड़ी खुद भी सुलगायी। उस आदमी का घर यहाँ से शायद पाँच-छह कोस दूर एक छोटे-से जंगली गाँव में था, जो बाघमुत्ती और झालदा पर्वतश्रेणी और जंगल के बीच किसी एकांत छायागहन तराई में पलाश, महुआ, बरगद वग़ैरह पेड़ों के नीचे बसा होगा। उस आदमी के दो बच्चे पैदा होकर मर जाने के बाद यह लड़की हुई थी। जब वह दो माह की थी तब उसकी माँ भी मर गयी। वह आदमी जंगल की लकड़ियाँ काटकर गाँव की दूसरे लोगों की तरह चंदनकियारी के हाट में बेचता था। लेकिन अब उसके पीछे घर में उस दो माह की लड़की को कौन देखता ? उसे साथ लेकर ऊँचे पहाड़ पर धूप और वर्षा में वह किस तरह लकड़ियाँ काटता ? इसलिए घर में ताला लगाकर वह रोज़गार की तलाश में पुरुलिया शहर चला गया था।
मैंने पूछा, ‘‘लकड़ियाँ बेचकर कितने पैसे मिल जाते होंगे ?’’
उसने बीड़ी का कश लेकर कहा, ‘‘एक गट्ठर के तीन-चार आने मिलते थे। जंगल का टैक्स दो पैसे लगता था। चावल सस्ता था। दो लोगों का पेट किसी तरह भर जाता था। फिर यह लड़की पैदा हुई। इसके पैदा होने के बाद इसकी माँ मर गयी। उस वक़्त इस नन्हीं-सी जान को छोड़कर जंगल में जाने का मन नहीं हुआ। सोचा-पुरुलिया चला जाऊँ। बड़ा शहर है। दो लोगों के खाने भर का इंतज़ाम को हो ही जायेगा।’’
‘‘क्या पुरुलिया बड़ा शहर है ?’’
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